चमार' शब्द को ब्रांड बनाने वाले सुधीर राजभर ने कैसे खड़ी की करोड़ों की कंपनी?
: 'चमार' शब्द को ब्रांड बनाने वाले सुधीर राजभर ने कैसे खड़ी की करोड़ों की कंपनी?
सुधीर राजभर ने 'चमार' शब्द को एक ब्रांड में बदलकर करोड़ों की कंपनी स्थापित की है। उत्तर प्रदेश के जौनपुर से ताल्लुक रखने वाले सुधीर का पालन-पोषण मुंबई में हुआ। अपने गांव में, उन्हें अक्सर 'चमार' जैसे जातिसूचक शब्दों से अपमानित किया जाता था। इस अपमान के बावजूद, उन्होंने इस शब्द को गर्व का प्रतीक बनाने का निर्णय लिया।
2018 में, सुधीर ने 'चमार स्टूडियो' की स्थापना की, जिसका उद्देश्य चमड़ा उद्योग में काम करने वाले दलित कारीगरों को रोजगार देना और उनके सम्मान को बढ़ाना था। उन्होंने धारावी के कारीगरों के साथ मिलकर रिसाइकल्ड सामग्री से उच्च गुणवत्ता वाले, सस्टेनेबल और स्टाइलिश बैग और जूते बनाना शुरू किया।
चमार स्टूडियो के उत्पादों में रिसाइकल्ड रबर, प्लास्टिक की बोतलों से बना धागा और अन्य पर्यावरण-अनुकूल सामग्री का उपयोग होता है। उनके उत्पाद अमेरिका, जर्मनी और जापान सहित दुनिया भर में लोकप्रिय हैं। इस ब्रांड ने न केवल आर्थिक सफलता हासिल की है, बल्कि जातिगत भेदभाव के खिलाफ एक मजबूत संदेश भी दिया है।
सुधीर राजभर की इस पहल ने 'चमार' शब्द को एक नई पहचान दी है, जो अब गर्व और सशक्तिकरण का प्रतीक बन गया है।
सुधीर राजभर, एक कलाकार, डिजाइनर और चमार स्टूडियो के संस्थापक, ने अपनी यात्रा में सामाजिक और पर्यावरणीय परिवर्तन के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उत्तर प्रदेश के जौनपुर में जन्मे और मुंबई के कांदिवली स्लम में पले-बढ़े सुधीर ने बचपन से ही कारीगरी के प्रति रुचि दिखाई। उन्होंने वसई विकासिनी कॉलेज ऑफ विजुअल आर्ट्स से फाइन आर्ट्स में स्नातक किया और चित्तरंजन उपाध्याय और नवजोत आल्ताफ जैसे प्रतिष्ठित कलाकारों के साथ काम किया।
2015 में, बीफ प्रतिबंध के बाद, चमार समुदाय के कारीगरों की आजीविका पर संकट आया। सुधीर ने इस चुनौती को अवसर में बदलते हुए, पुनर्नवीनीकरण रबर और टायर शीट्स का उपयोग करके उत्पाद बनाने की दिशा में काम किया। उन्होंने कारीगरों को इन नए सामग्रियों के साथ काम करने के लिए प्रशिक्षित किया, जिससे उनकी आजीविका को नया मार्ग मिला।
चमार स्टूडियो के उत्पादों में पारंपरिक नामों का उपयोग किया गया है, जैसे पट्टा खिसा, बटुआ, झोला, कार्यालया, बनिया, बस्ता, बोरा, चमार थैला आदि। इन उत्पादों की कीमत 1,500 रुपये से 6,000 रुपये के बीच है, और लाभ का आधा हिस्सा उन कारीगरों को दिया जाता है जिनके साथ सुधीर काम करते हैं।
सुधीर राजभर की इस पहल ने न केवल चमार शब्द को गर्व का प्रतीक बनाया है, बल्कि कारीगरों की आजीविका को पुनर्जीवित करते हुए पर्यावरण संरक्षण में भी योगदान दिया है। उनकी कहानी सामाजिक परिवर्तन और सृजनात्मकता का प्रेरणादायक उदाहरण है।
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